हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार , हौज़ा ए इल्मिया ईरान के अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मुफीद हुसैनी कोहसारी ने बलाग़-ए-मुबीन मीडिया कमेटी की एक बैठक में हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) की शहादत के दिनों पर ताज़ियत पेश करते हुए साल 1447 हिजरी क़मरी को “पैग़ंबर-ए-इस्लाम हज़रत मुहम्मद स.अ.व की पैदाइश के 1500वें साल” के रूप में मनाने की तैयारियों और उसकी अहमियत पर बात की।
उन्होंने कहा,पैग़ंबर-ए-अकरम स.अ.व को 40 साल की उम्र में नुबुव्वत मिली और आपने 13 साल मक्का में गुज़ारे। यानी जब आपने मक्का से मदीना हिजरत की, तो आपकी उम्र 53 साल थी। वही साल हमारी तक़रीब का साल है। इसलिए हिजरी कैलेंडर चाहे शम्सी हो या क़मरी, हिजरत से शुरू होता है। अब 1447 में 53 जोड़िए तो 1500 होता है इसी हिसाब से यह गणना तय की गई।

उन्होंने आगे कहा,यह विषय कैसे आम और मज़बूत हुआ? शुरुआत में देश में कुछ लोगों ने यह सवाल उठाया कि ‘साल 1447 पैग़ंबर (स.अ.व) की पैदाइश का 1500वां साल है क्या इस पर कोई बड़ा काम नहीं होना चाहिए? इन्हीं सवालों और तवज्जो ने इन तैयारियों की शुरुआत की। फिर हमने देखा कि क्या यह हिसाब दुनिया के दूसरे इस्लामी विद्वानों के लिए भी क़ाबिले-क़बूल है या नहीं।
उन्होंने बताया,चूंकि यह मामला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठ सकता था इसलिए ज़रूरी था कि इसे इस्लामी और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी मान्यता मिले। इसी सिलसिले में ईरान की विदेश मंत्रालय ने सऊदी अरब में मौजूद मशहूर इस्लामी संस्था ‘जिद्दा फ़िक़्ही असेंबली’ से आधिकारिक तौर पर पत्राचार किया।
उन्होंने लिखित जवाब दिया कि हाँ, यह हिसाब सही है यह साल वास्तव में पैग़ंबर-ए-इस्लाम (स.अ.व) की पैदाइश का 1500वां साल है। उन्होंने यह भी कहा कि पूरे इस्लामी जगत को इस अवसर पर जश्न और कार्यक्रम आयोजित करने चाहिए। जिद्दा असेंबली ने इस पर एक सर्वसम्मत और मज़बूत बयान जारी किया।

कोहसारी ने कहा,यह एक ऐतिहासिक और रणनीतिक मौक़ा है। जिस तरह हाल के वर्षों में अरबाईन और ग़दीर जैसे मौक़ों ने बड़ी तरक़्क़ी की है, उसी तरह अब पैग़ंबर-ए-अकरम (स.अ.व) की शख्सियत पर आधारित प्रोग्रामों और कॉन्फ़्रेंसेज़ की ज़रूरत है।
उन्होंने इज़राईली अत्याचारों और दुनिया पर उनके असर की ओर इशारा करते हुए कहा,12 दिन की जंग और ख़ास तौर पर ‘तूफ़ान-उल-अक़्सा’ और ग़ाज़ा की तबाही के बाद दुनिया को एक बहुत अहम पैग़ाम मिला जिसे हमने गंभीरता से नहीं लिया। सब समझ गए कि इस्राईल ज़ालिम है, और हक़ की नहीं बल्कि बातिल की तरफ़ है।
यह बातचीत या कानून को नहीं मानता न इंसानियत, न धर्मों की क़दर करता है। ग़ाज़ा पर बेरहम हमलों ने इस्राईल को दुनिया में रुसवा कर दिया है। जनमत से लेकर अंतरराष्ट्रीय संगठनों तक सबने पूछा,इसका क्या मतलब है? 60 हज़ार लोग मारे जा चुके हैं! तो फिर संयुक्त राष्ट्र? हेग कोर्ट? मानवाधिकार कहाँ हैं?
अंत में उन्होंने कहा,12 दिन की जंग के बाद पूरी दुनिया के दिल और दिमाग इस्लामी इन्क़ेलाब के शुरुआती दौर की तरह ईरान की तरफ़ झुक गए हैं। यहाँ तक कि वहाबी, सलफ़ी, और ज़ायोनी ईसाई जिन्हें यह बताया गया था कि ‘ईरान और इस्राईल अंदर से मिले हुए हैं’ अब पूछ रहे हैं: ‘तो फिर ईश्वर की मर्ज़ी क्या थी?’ और कुछ इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि ईश्वर की मर्ज़ी इस्राईल की हिफ़ाज़त नहीं, बल्कि उसके पतन में है।

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